छह दिसंबर के आठ साल बाद, छह दिसंबर को ही, धनराज चैधरी की बाबरी मस्जिद भी ढह गई, लेकिन इस बार न कहीं दंगा हुआ न ही बम-विस्फोट। सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर धनराज चैधरी, जो लकदक दोस्तों की चकमक दुनिया में धनराज के नाम से मशहूर था, ने जेब से रूमाल निकालकर अपना चश्मा साफ किया, वापस आंखों पर चढ़ाया और खड़ा हो गया। आॅफिस से मिली हुई कार की चाबी और मोबाइल उसने पर्सनल डायरेक्टर को पकड़ाए और जाने के लिए मुड़ा।
‘जस्ट ए मिनट।‘ पर्सनल डायरेक्टर ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और फीकी मुस्कान के साथ बोला, ‘आॅल द बेस्ट। यू नो वी आॅल आर इन द सेम बोट। जाना सभी को है। किसी को पहले, किसी को बाद में। मार्केट में सम्राट समूह का खाता बन्द हो रहा है।‘
‘जी!‘ धनराज ने अस्फुट स्वरों में कहा और पर्सनल डायरेक्टर के केबिन से बाहर आ गया।
यह तो बहुत भीषण चूतियापा हो गया गुरु। धनराज ने सोचा, अभी तो रिटायर होने में पूरे पंद्रह बरस बाकी हैं। वह सुस्त कदमों के साथ अपने केबिन में घुसा तो वहां सहायक कैशियर उसके इंतजार में था।
'सर, यह रहा आपके वी. आर. एस. का चेक।‘ सहायक कैशियर ने धनराज को उसका हिसाब समझाया, ‘दस वर्ष की नौकरी का कंपनसेशन बीस महीने की सेलरी चार लाख रुपये। पांच महीने की ग्रेच्युटी एक लाख रुपये। इनकम टैक्स एक लाख रुपये। यह रहा आपका चेक चार लाख रुपये। ओ.के. सर?‘
‘कितने लोग इस स्कीम के तहत निकाले गए हैं मिस्टर सिन्हा?‘ धनराज ने पूछा।
‘फिलहाल चालीस।‘ सहायक कैशियर ने बताया, ‘लेकिन मार्च तक साठ और जाएंगे।‘
‘ओ०के० ऑल द बेस्ट।‘ धनराज हंसा। लेकिन सिन्हा के जाते ही उसे लगा उसके भीतर कहीं जोरदार दंगा हो गया है।
चेक को लिफाफे में रख उसने ब्रीफकेस में डाला, दराजों से अपना छोटा-मोटा निजी सामान उठाया। ब्रीफकेस बंद कर बड़ी हसरत से अपने केबिन का मुआयना किया और बुझे मन से बाहर आ गया।
ये ग्लोबलाइजेशन के उत्थान पर पहुंच रहे दिन थे। कंप्यूटर क्रांति घर कर चुकी थी। पूरी दुनिया एक गांव में बदल रही थी। गली-गली में साइबर कैफे खुल गए थे। जवान लड़के-लड़कियां नेट सर्फिंग के जरिये अपने जीवन साथी तलाश रहे थे। सौंदर्य प्रतियोगिता बाजार तय कर रहा था। विश्व सुंदरी का ताज हर वर्ष भारतीय लड़की के माथे पर दमकने पर मजबूर था, क्योंकि पूरी दुनिया की निगाहें अब भारतीय बाजार पर थीं। लगभग हर कंपनी में वी आर एस लागू कर कर्मचारियों को घर बिठाया जा रहा था। तमाम सरकारी उपक्रम निजी हाथों में जा रहे थे या जानेवाले थे। कोकाकोला और पेप्सी में जंग जारी थी। अपने जमाने के सुपरस्टार ने पूरे देश को विशाल जुआघर में बदल डाला था और तमाम टीवी चैनलों के दर्शक छीन लिए थे। वह देश के आम लोगों को करोड़पति बनाने पर तुला था और उस गेम शो से प्राप्त पारिश्रमिक से अपने सिर पर चढ़ा करोड़ों का कर्जा उतार रहा था। रितिक रोशन का खुशनुमा जमाना था।
इन्हीं खुशनुमा दिनों में धनराज चैधरी पूरे पैंतालीस बरस की उम्र में सड़क पर आ गया था और टैक्सी के इंतजार में था।
बाहर सब कुछ पूर्ववत था। लोग-बाग सड़क पार कर रहे थे। डोसा-इडली, बड़ा-पाव खा रहे थे। बसें पकड़ रहे थे और घर जा रहे थे। नरीमन पाॅइंट के समुद्र में रात चमक रही थी। ओबेराय होटल के टैरेस पर मखमली अंधेरा उतर रहा था। नरीमन पाॅइंट की बिल्डिंगें सिर ताने खड़ी थीं। उसी नरीमन पाॅइंट की अटलांटा बिल्डिंग के भीतर कुछ ही देर पहले धनराज की दुनिया ढहा दी गई थी और सब चुप थे-निर्वाक।
चमकती हुई रात के उस नाचते हुए अंधेरे में धनराज की रीढ़ की हड्डी में एक तेज सिहरन-सी उठी। उसने टैक्सी की खिड़की का शीशा आधा गिरा दिया। समुद्री हवा का एक ठंडा टुकड़ा टैक्सी के भीतर आकर सिर उठाने लगा। धनराज को मलेरिया जैसी कंपकंपी अपने बदन पर रेंगती अनुभव हुई। यह कैसी कंपकंपी है, धनराज ने सोचा और ठंडी हवाओं को भीतर आने दिया। बाहर कई लड़कियां कम वस्त्रों में जाॅगिंग कर रही थीं।
माना कि वह दिसंबर की रात थी लेकिन वह मुंबई का दिसंबर था, जो दिल्ली की तरह कटखना नहीं होता। टैक्सी के बाहर मायावी और दिलकश मरीन ड्राइव पर वैभव की एक चमकदार धूल धारासार बरस रही थी। धनराज ने टैक्सी को ‘लोटस‘ की तरफ मुड़वा दिया।
'लोटस‘ में हमेशा की तरह शहर की सबसे सुंदर, सबसे जवान और सबसे उत्तेजक लड़कियां नाच रही थीं, अंडरवल्र्ड के सबसे बड़े डाॅन के सबसे खतरनाक गुंडे उन लड़कियों की हिफाजत में चाकुओं की तरह तने थे। अपनी पसंदीदा मेज पर बैठते ही धनराज को याद आया कि अब वह सम्राट समूह का मीडिया डायरेक्टर नहीं है और किसी बड़े अखबार के बड़े पत्रकार को कंपनी के हित में पटाने यहां नहीं आया है। अपनी पसंदीदा मेज और पसंदीदा लड़की को छूटी हुई जगह की तरह ताकते हुए वह ‘लोटस‘ से बाहर आ गया। एक समय था, जब महीने की बीस रातें धनराज ‘लोटस‘ में ही बिताता था-नींद के बावजूद।
लेकिन आज धनराज अकेला था और नींद के बाहर था। पूरे दस वर्ष से धनराज नींद के एक तिलिस्मी बाजार में बैठा जाग रहा था। नींद के भीतर इस तिलिस्मी दुनिया में बड़े लोग, बड़े व्यापार, बड़ी पार्टियां, बड़ी सुंदरता और बड़ी मारकाट थी। इस दुनिया में बड़ी सफलता के साथ धनराज ने अपना होना सिद्ध किया हुआ था। इसीलिए वह समझ नहीं पा रहा था कि नींद के बाहर की जिस लगभग अजनबी हो चुकी दुनिया में उसे अचानक उठाकर फेंक दिया गया है, वहां वह खुद को कैसे साबित करेगा?
‘लोटस‘ के बाहर बारिश हो रही थी, बेमौसम बरसात? धनराज ने सोचा और सिहर गया। उसने उस बारिश में विपत्तियों को बरसते देख लिया था।
पैडर रोड की वाईन शॉप के किनारे टैक्सी रुकवाकर धनराज ने ड्राइवर को सौ का नोट पकड़ाते हुए कहा, ‘एक ओल्ड मौंक का क्वार्टर और बिसलरी की बाॅटल पकड़ लो तो।‘ ड्राइवर ने बड़े अचरज के साथ धनराज को ताका तो धनराज के मुंह से ‘सॉरी‘ निकल गया। असल में वह फिर भूल गया था कि वह कंपनी की गाड़ी में, कंपनी के ड्राइवर के साथ नहीं, टैक्सी में बैठा है। खुद बाहर जाकर उसने अपना सामान लिया और वापस टैक्सी में आ बैठा। बिसलरी का थोड़ा पानी पीकर उसने रम का क्र्वाटर बचे हुए पानी में मिला दिया और एक चुस्की लेकर सिगरेट जला ली।
सिद्धि विनायक मंदिर जा रहा था। धनराज ने गर्दन झुका दी। उसने तो गर्दन झुकाए-झुकाए ही काम किया था, तो फिर वी आर एस की गाज उसके सिर पर क्यों गिरी? बहुत मेहनत की थी धनराज ने सम्राट समूह में। सुबह आठ बजे तैयार होकर वह अपनी कार में बैठ जाता था और पौने दस तक दफ्तर ‘टच‘ कर लेता था। शाम सात बजे तक दफ्तर में रहने के बाद वह जन संपर्क अभियान पर निकलता था। रात दस-साढ़े दस पर घर के लिए रवाना होकर बारह-सवा बारह तक घर पहुंचता था। घर पर जाते ही वह खाना खाता था और सो जाता था। सुबह छह बजे उठकर फिर तैयार होने लगता था। घर, बाजार, काॅलोनी, बच्चा सब कुछ उसकी पत्नी सरिता ने संभाला हुआ था।
तो फिर? धनराज ने सोचा और एक लंबा घूंट भरा, अब इसका वह क्या कर सकता था कि सम्राट समूह का एक महत्वाकांक्षी प्रोडक्ट ‘सम्राट नमक‘ बाजार में पिट गया। बाजार देखना तो मार्केटिंग का काम है। वह जो कर सकता था, उसने किया। पत्रकारों के एक दल को लेकर वह नमक का प्लांट दिखाने पालघर ले गया था। कई अखबारों ने उस नमक की तारीफ में लेख भी छापे थे। एक अखबार के पत्रकार को तो उसने पालघर के एक होटल में काॅलगर्ल भी मुहैया करवाई थी।
‘रीजेंसी‘ जा रहा था। इस होटल से वह सरिता के लिए पहाड़ी कबाब और बेटे के लिए ड्राईचिली पनीर पार्सल कराता था। जाने दो। धनराज ने सोचा और ‘रीजेंसी‘ को टैक्सी के भीतर से ही हाथ हिला दिया।
मीरा-भायंदर रोड की एक सुनसान जगह पर टैक्सी रुकवाकर उसने पेशाब किया और खाली बोतलें झाड़ियों में फेंक दीं। दस मिनट के बाद टैक्सी उसके घर के नीचे थी। टैक्सीवाले को चार सौ रुपये देकर उसने सिगरेट सुलगा ली और घर की सीढ़ियां चढ़ने लगा। उसका फ्लैट पहले माले पर था। गेट के बाहर उसकी नेमप्लेट चमक रही थी। धनराज ने घंटी बजा दी, अपने विशेष अंदाज में। रात के दस बज रहे थे।
‘इतनी जल्दी‘, सरिता ने दरवाजा खोलते ही पूछा।
धनराज ने ब्रीफकेस मेज पर रखा और सोफे पर बैठकर सिगरेट एश ट्रे में मसल दी। फिर उसने चश्मा उतारा और तिपाई पर रख दिया। फिर वह घड़ी उतारने लगा।
‘अरे? आज ड्राइवर ऊपर तक नहीं आया?‘ सरिता चैंक गई, ‘और मोबाइल किधर है, खो दिया क्या?‘
धनराज दो-तीन मोबाइल खो चुका था और उसका ड्राइवर ब्रीफकेस उठाकर कमरे के भीतर तक आता था। एक गिलास पानी पीकर वह सुबह आने का समय पूछ कर तब जाता था।
‘गाड़ी खराब है और मोबाइल दफ्तर में छूट गया।‘ धनराज झूठ बोल गया, ‘रोहित कहां है?‘ उसने बेटे की जानकारी ली।
‘रोहित इस समय तक कहां आता है? अभी तो ट्रेन में होगा। तुम आज जल्दी आ गए हो। सब ठीक तो है न?‘ सरिता आशंकित-सी हो गई।
‘हां।‘ धनराज संक्षिप्त हो गया, ‘कुछ सलाद वगैरह मिलेगा?‘
सरिता किचन में चली गई। धनराज ने अपनी बहुत बड़ी वाॅल यूनिट में बने छोटे-से बार को खोल अपने लिए रम का एक पैग बनाया और फ्रिज में से पानी निकालकर गिलास में मिला दिया। गिलास को तिपाई पर रखकर वह मुंह-हाथ धोने चला गया। तब तक सरिता एक प्लेट में चिकन के दो टुकड़े रख गई।
धनराज ने गिलास हाथ में लिया और घूमकर पूरे घर का मुआयना-सा करने लगा।
घर में टीवी था, वीसीआर था, फ्रिज था, म्यूजिक सिस्टम था, वाशिंग मंशीन थी, एसी था, सोफा था, वाॅल यूनिट थी, डबल बेड था, डाइनिंग टेबल थी, ड्रेसिंग टेबल थी, सेंटर टेबल थी, वार्डरोब था, फोन था, कंप्यूटर था, इंटरनेट कनेक्शन था, प्रिंटर था, स्कैनर था, फैक्स मशीन थी, बर्तन थे, बिस्तर थे, कपड़े थे, बीवी थी, बेटा था और बीते दिनों की यादें थीं।
और? और तुम्हें क्या चाहिए धनराज? धनराज ने सोचा और रम का बड़ा घूंट लिया।
सरिता सलाद लेकर आई तो धनराज की आंखें नम थीं। तभी घंटी बजी, रोहित था। धनराज ने ध्यान से देखा, रोहित मूंछवाला होने के पायदान पर था। सुबह वह जा रहा होता था तो रोहित सोता होता था। रात को जब लौटता था तो रोहित सो चुका होता था। उसका वीकली आॅफ संडे होता था और रोहित शनिवार रात अपने दोस्तों के साथ वीकएंड की पार्टियों में चला जाता था। रोहित इतवार की रात दस-ग्यारह बजे खाना खाकर लौटता था, तब तक धनराज सो चुका होता था। इतवार को धनराज पूरे हफ्ते की नींद चुरा लेता था।
'पापा ऽऽ‘, रोहित धनराज से चिपट गया।
‘बेटा ऽऽ‘, धनराज ने प्रश्न किया, ‘हमारा नमक क्यों पिट गया?‘
'पिट गया?‘ रोहित ने लापरवाही से कहा, फिर लापरवाही में थोड़ा-सा व्यंग्य मिलाकर बोला, ‘पिटना ही था। अपना सब कुछ पिटने ही वाला है।‘
अरे बाप रे! धनराज चकित रह गया। ये स्साला तो खासा बड़ा और समझदार हो गया है।
‘तेरे वेब मीडिया के क्या हाल हैं?‘ धनराज ने पिताओं जैसी उत्सुकता जताने की कोशिश की।
अपने कमर्शियल आर्ट का डिप्लोमा करने के बाद रोहित वेब मीडिया नाम की कंपनी में ट्रेनी ग्राफिक डिजाइनर हो गया था।
‘उसको छोड़े तो तीन महीने हो गए पापा, आपको कुछ पता भी रहता है।‘ रोहित ने तनिक गर्व से बताया, ‘इन दिनों मैं एक अमेरिकी कंपनी में प्रोबेशन पर चल रहा हूं।‘
‘अरे वाह!‘ धनराज थोड़ा मुदित हुआ, ‘पैसे?‘
‘मिलते हैं न। प्रोबेशन तक छह हजार, उसके बाद आठ हजार लेकिन मैं चक्कर में हूं कि कहीं और निकल जाऊं।‘ रोहित मुस्कराया।
‘लेकिन इतनी जल्दी-जल्दी नौकरी बदलना क्यो?‘ धनराज चिंतित-सा हुआ।
‘नौकरी नहीं पापा, जाॅब...जाॅंब।‘ रोहित खिलखिलाने लगा, ‘हमारी जेनरेशन एक जगह बंधकर नहीं रहती आप लोगों की तरह...जहां ज्यादा पगार वहीं पर काम। हम प्रोफेशनल लोग हैं। हमें आपकी तरह थोड़े ही रहना है, साल में ढाई तीन सौ रुपये का एक इनक्रीमेंट...हमें एक साल में तीन हजार का इनक्रीमेंट चाहिए वरना तो अपने को परवड़ेगा नहीं।‘ रोहित तेजी से हिंदी, मराठी, अंग्रेजी में बोलकर बेडरूम में चला गया।
बहुत दिनों या शायद महीनों या फिर सालों बाद तीनों एक साथ खाना खाने बैठे। रोहित अपनी कंपनी, अपने जाॅब, अपने नाम आनेवाली ई-मेल और अपनी गर्ल फ्रेंड्स की दुनिया में मगन था। जब वह चुप होता तो सरिता काॅलोनी में गुजरती अपनी दिनचर्या की गठरी खोल देती थी। धनराज को लगा, अपनी जा चुकी नौकरी की सूचना इस समय देना परिवार की खुशियों के ऊपर बम विस्फोट करने जैसा हो जाएगा। वह चुपचाप मां-बेटे के उल्लास के बीच भीगता रहा।
फिर हमेशा की तरह सुबह छह बजे का अलार्म लगाकर वह सोने चला गया।
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धनराज सोता ही रह जाता और चीखते हुए चारों तरफ के शोर में, अपनी नींद में ही बेआवाज मर जाता, अगर सम्राट समूह में मीडिया डायरेक्टर वाली उसकी नौकरी बनी रहती।
बहुत-बहुत बुरे दिनों की बहुत बदहाल और कमजोर सीढ़ियों पर कदम जमा-जमाकर ऊपर चढ़ा था धनराज। उम्र के पैंतीस वर्ष उसने हालात से पिटते और सपना देखते हुए काटे थे। मेरठ, मुजफ्फरनगर, रुड़की, देहरादून और फिर एकदम जोधपुर में उसका जीवन कटा था। और फिर एकाएक वह मुंबई आ गया था-सम्राट समूह में मीडिया मैनेजर होकर। दो साल के भीतर वह समूह का मीडिया डायरेक्टर हो गया था। एक सुखी जीवन उसका अंतिम सपना था। इस सुखी जीवन की गोद में पहुंचते ही वह प्राणपण से उसे संवारने और बटोरने में लग गया।
सम्राट समूह ने उसे निचोड़ा भी बहुत, लेकिन इसका उसे कोई गिला नहीं रहा। वह अपनी नींद में यह सोचते हुए जीता रहा कि उसके सुख शाश्वत हैं। नींद से बाहर की एक बड़ी दुनिया से असंपृक्त वह घर से दफ्तर और दफ्तर से घर की यात्रा में मुसलसल मुब्तिला रहा। वह यह याद ही नहीं रख पाया कि उसका एक अतीत भी है, जिसमें बहुत बुरे दिन रहते हैं।
इसीलिए नौकरी चले जाने के बाद जब नींद से बाहर की दुनिया से उसकी मुठभेड़ हुई तो वह हक्का-बक्का रह गया। वह सोचता था कि जिस कठिन जीवन को वह बहुत पीछे छोड़ आया है, उस जीवन से अब कम से कम उसका कोई लेन-देन बाकी नहीं रहा है। लेकिन यह लेन-देन न सिर्फ बाकी था, बल्कि चक्रवृद्धि ब्याज सहित उसके सिर पर सवार हो गया था।
इस ज्ञान ने धनराज की नींद उड़ा दी।
सिलसिला यूं शुरू हुआ।
नौकरी जाने के अगले रोज धनराज रोज की तरह दफ्तर जाने के लिए तैयार हुआ और मीरा रोड स्टेशन पहुंचा। सुबह के साढ़े आठ बजे थे। टिकट खिड़की पर खड़ी लंबी कतारों को देख धनराज के पसीने छूट गए। आधा घंटा कतार में खड़े रहने के बाद उसने चर्चगेट का द्वितीय श्रेणी का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर आ गया। उसका कलेजा थरथरा रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि प्लेटफार्म पर जो भीड़ है, वह उसे मधुमक्खियों के छत्ते सरीखी क्यों लग रही है? इस छत्ते में धनराज ने सिर्फ दो काम किए। चर्चगेट ले जानेवाली ट्रेन के करीब पहुंचा और धक्के मार-मारकर दूर धकेल दिया गया। लोग दरवाजों पर ही नहीं, खिड़कियों पर भी लटके हुए थे। एक घंटे के भीतर सात ट्रेनें निकल गईं और धनराज किसी भी ट्रेन में नहीं चढ़ पाया। असल में धनराज को लोकल ट्रेन का अभ्यास ही नहीं था। आखिरकार जब ट्रेन पकड़ने के चक्कर में वह पिट-पिटकर अधमरा हो गया तो मुचड़े हुए कपड़ों, टूटे हुए जिस्म और गिर चुके महंगे चश्मे का गम संभाले खराम-खरामा चलता हुआ अपने घर लौट आया।
घर पर रोहित अपने दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहा था। सरिता रोहित का टिफिन तैयार कर रही थी।
धनराज को वापस घर आया देख दोनों ने एक साथ पूछा, ‘क्या हुआ?‘
धनराज खिसिया गया। फिर उसने लगभग रुआंसे स्वर में बताया कि लोकल में तो वह चढ़ ही नहीं पाया, उसने अपना गोल्डन फ्रेम का चश्मा भी गंवा दिया है।
रोहित हा...हा...कर हंसने लगा, ‘मीरा रोड से कैसे चढ़ोगे पापा? मीरा रोड से विरार जाने का, फिर वहां से बननेवाली ट्रेन में चढ़कर आने का। क्या समझे?‘
धनराज कुछ नहीं समझा।
फिर सरिता ने चकित होकर पूछा, ‘मगर गाड़ी खराब होने पर तो तुम टैक्सी से जाते हो...आज लोकल की सनक किसलिए?‘ इसके बाद उसने धनराज को याद दिलाया कि उसके चश्मे का फ्रेम दो हजार का था।
इस बीच रोहित ‘बाय‘ बोलकर निकलने लगा तो धनराज ने पीछे से पुकार कर पूछा, ‘अरे, तू कैसे जाएगा?‘ ' पापा, मैं रोज ट्रेन में ही जाता हूं।‘ रोहित फर्राटे से निकल गया।
अरे? धनराज विस्मित रह गया।
‘अब बताओ, चक्कर क्या है?‘ सरिता उसके लिए एक कप चाय ले आई और उसके सामने हेडमास्टर की-सी मुद्रा में खड़ी हो गई।
‘मेरी नौकरी चली गई।‘ धनराज ने आत्मसमर्पण कर दिया।
‘तो इसमें शहीद होने की क्या बात? क्या यह पहली बार हुआ है? सम्राट समूह से पहले भी तुम्हारी नौकरियां आती-जाती रही हैं। तब तो हम इतने अच्छे दिनों में भी नहीं रहते थे।‘ सरिता ने उसे ढांढस बंधाया तो धनराज विस्मित रह गया।
फिर कई दिनों तक धनराज विस्मित ही होता रहा।
उसने पाया कि हर समय व्यस्त रहनेवाला उसका फोन मृतकों की तरह दुनिया से बाहर चला गया है। वह रिसीवर उठाकर देखता तो डायल टोन मौजूद मिलती। एक बार उसने अपने एक खास दोस्त अश्विनी पाराशर को फोन किया। अश्विनी की सेक्रेटरी ने पूछा कि वह कौन बोल रहा है, कहां से बोल रहा है और उसे किस बारे में बात करनी है? धनराज ने चिढ़कर कहा कि वह अश्विनी का दोस्त है तो सेक्रेटरी ने विनम्रता के साथ बताया कि साहब मीटिंग में हैं, वह अपना फोन नंबर बता दे, धनराज ने नंबर बताकर फोन रख दिया और अश्विनी के फोन का इंतजार करने लगा। मगर अश्विनी का फोन नहीं आया।
उसने एक और दोस्त को फोन किया। वह भी मीटिंग में था। तीसरे दोस्त की आन्सरिंग मशीन पर उसने मैसेज रिकाॅर्ड कराया, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया।
‘बिल और ब्लडप्रेशर मत बढ़ाओ।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘सम्राट समूह के दिनों में तुम भी या तो मीटिंग में होते थे या टाॅयलेट में।‘
'पापा, जो सामने है, उसे एक्सेप्ट करो।‘ रोहित ने सलाह दी, ‘आप ही तो बताते थे कि आपने बहुत बुरे दिन देखे हैं। ये तो अच्छे दिन हैं, एनज्वाॅय करो।‘
एनज्वाॅय? अच्छे दिन? लेकिन कितने दिन? पांच-सात लाख रुपयों के सहारे कितने दिन टिकेंगे अच्छे दिन? धनराज ने सोचा और चिंतित हो गया।
सरिता ने धनराज की दिनचर्या बता दी। सुबह छह बजे जागकर चाय पीना, फ्रेश होना और एक घंटे तक पार्क में टहलना। पार्क से लौटकर अखबार पढ़ना और नाश्ता लेना। नाश्ते के बाद नहाना-धोना और भायंदर की लायब्रेरी जाकर किताबें पढ़ने की कोशिश करना, लौटकर खाना खाना और सो जाना। शाम को उठकर चाय पीना और मार्केटिंग करना। लौटकर टीवी देखना, रात का खाना खाना और सो जाना। किताबों की सूची भी सरिता ने ही तैयार कर दी।
धनराज के माथे पर त्यौरियां चढ़ गईं। वह चिढ़कर बोला, ‘मैं क्या रिटायर हो गया हूं?‘
'रिटायर हुए नहीं हो, रिटायर कर दिए गए हो।‘ रोहित ने समझाया, ‘आप तो पैंतालीस वर्ष के हो। इस काॅलोनी में पैंतीस-छत्तीस के आदमी भी बेकार घूमते हैं। उनकी भी कंपनियां बंद हो गई हंै।‘
चिंतित और बदहवास धनराज ने इसके बावजूद दोस्तों की दुनिया पर निगाह डालनी बंद नहीं की। लगातार निराश होने के बाद अंततः उसने स्वीकार कर लिया कि वह नींद के बाहर का आदमी है और उसकी आवाज नींद के भीतर की दुनिया से टकराकर लौटने को अभिशप्त है।
नींद के भीतर की दुनिया बहुत विराट थी। उस नींद के भीतर एक महानींद थी। उस महानींद की दुनिया महाविराट थी। उस दुनिया में नींद के बाहर पड़े हुए लोगों का प्रवेश वर्जित था। उस दुनिया में कोई किसी का दोस्त नहीं था। वहां संबंध नहीं कारोबार टिकता था। वहां एक महाबाजार लगा हुआ था, जिसमें लोग या तो उपभोक्ता थे या विक्रेता। इस दुनिया के सारे रास्ते बाजार की तरफ जाते थे। और इस बाजार में धनराज की कोई जरूरत नहीं थी।
धनराज चिंतित नहीं, विचलित हुआ।
काॅलोनी के लोगों से उसका दुआ सलाम होने लगा था।
तभी एक हादसा हुआ।
सकीना नाम की एक जवान लड़की ने चूहों को मारने वाला जहर ‘रैटोल‘ खाकर आत्महत्या कर ली।
सकीना उस काॅलोनी में रहनेवाले एक टेलर याकूब की इकलौती बेटी थी और बारहवीं में पढ़ती थी। सरिता से बहुत हिली-मिली थी सकीना इसलिए इस मौत से सरिता अंदर तक हिल गई। अस्पताल से लौटकर बताया उसने, वह कुछ बताना चाहती थी, लेकिन बता नहीं पाई। शायद उस लड़की को उसके काॅलेज के कुछ गुंडे लड़कों का गैंग परेशान कर रहा था।
‘तुमको याद नहीं है।‘ बताया सरिता ने, ‘ये लोग चारकोप में भी हमारे पड़ोसी थे, इसके पापा की वहां भी मार्केट में दर्जी की दुकान थी। दिसंबर के दंगों में उनका घर और दुकान जला दिए गए थे।‘
‘अरे?‘ धनराज चैंक गया, ‘बेचारा उस बस्ती में भी बरबाद हुआ और इस काॅलोनी में भी।‘
धनराज को याद आया।
दिसंबर के दंगोंवाले दिनों में वह भी कांदिवली की एक निम्न मध्यवर्गीय बस्ती चारकोप में किराए पर रहता था। वह बुरे दिनों से अच्छे दिनों में जाने का संक्रमण काल था।
‘इसमें काॅलोनी का क्या दोष है?‘ सरिता तुनक गई, ‘पूरी काॅलोनी के लोग अस्पताल में हैं। लाश को लेकर आ रहे हैं।‘
धनराज ने छह दिसंबर में जाकर देखा-रात के दस बजे थे। बंबई ने अभी जागने के लिए अंगड़ाई ली थी। धनराज का डाॅक्टर दोस्त जयेश और उसकी खूबसूरत युवा पत्नी सोनाली रात भर रुकने का कार्यक्रम बनाकर धनराज के घर आए थे। सरिता ने दहीवाला चिकन बनाया था और मछलियां फ्राई की थीं। उसका बेटा रोहित अपने एक मुस्लिम दोस्त के घर मालवणी गया हुआ था और रात को वहीं रुकनेवाला था।
शराब पीते हुए और मछलियां खाते हुए धनराज ने टीवी के पर्दे पर देखा-बंबई से हजारों किलोमीटर दूर एक छोटे से शहर में एक मस्जिद गिराई जा रही थी। धनराज डर गया। गिलास समेटकर वह अस्फुट स्वरों में बोला, ‘गुरु निकल लो। तुम्हारे साथ एक सुंदर औरत है...बेहतर होगा कि तुरंत निकल जाओ।‘
छह दिसंबर की उस रात डाॅक्टर दंपत्ति चारकोप से चार बंगला अपने घर सुरक्षित पहुंच गए और मालवणी की मुस्लिम बस्ती में गया धनराज का बेटा रोहित भी घर लौट आया। इसके बाद सड़कों पर एक वहशी प्रेत अपनी बांहें फैलाए हा हा हू हू करता हुआ कहर ढाने निकला।
अगली सुबह या शायद उससे अगली सुबह धनराज नींद में था कि सरिता ने उसे झकझोर दिया, ‘उठो, ऐसे कैसे सो सकते हो तुम? देखो, अपने जले हुए घर की दुर्दशा देखने आई नजमा को बस्ती के कुछ आवारा लड़कों ने पकड़ लिया है। कुछ भी हो, आॅफ्टर आल नजमा हमारे रोहित की टीचर है। उसे बचाओ।‘
‘पुलिस? पुलिस कहां है?‘ धनराज बड़बड़ाया था और अपनी बगल में सोए रोहित पर हाथ फिराकर फिर नींद में चला गया था।
पुलिस कस्टडी में जब तक नजमा पहुंची तब तक उसकी छातियों से गालों तक के हिस्से में पचपन घाव दर्ज हो चुके थे, और उसकी जांघों के बीच से रक्त का परनाला बह रहा था।
धनराज उस दिन दफ्तर नहीं जा पाया। तब तक उसे कंपनी की कार नहीं मिली थी। कांदिवली रेलवे स्टेशन ले जाने के लिए भी आॅटो उपलब्ध नहीं था। हालांकि आॅटो की तलाश में वह लगभग एक किलोमीटर दूर मछली मार्केट तक पैदल चला गया था।
मछली मार्केट श्मशान की तरह भुतैला और डरावना था। मछली, मुर्गे और मटन बेचनेवाले के बाकड़े और दड़बे जले पड़े थे। लकी ड्राईक्लीनर, जहां धनराज के कपड़े धुलते और प्रेस होते थे, नष्ट हो चुका था। उसके जले हुए कपड़ों की ढेर सारी राख के बीच से एक जख्मी हाहाकार झांक रहा था। लकी ड्राईक्लीनर का मालिक अनवर अपनी पत्नी और दो बच्चों सहित खुली सड़क पर तंदूरी चिकन की तरह भून दिया गया था।
सहमा-थका सा धनराज घर वापस लौटा तो सरिता सिर ढांप कर लेटी थी और फोन घनघना रहा था, दूसरी तरफ जोगेश्वरी में रहने वाला उसका एक कांट्रेक्टर दोस्त साजिद था। वह पूछ रहा था, ‘क्यों मियां? हमारी ही मस्जिद गिरा दी और हमको ही मारा-काटा जा रहा है। यह लोकतंत्र है या दादागिरी?‘
‘मुझे इस पचड़े में मत फंसाओ यार।‘ धनराज ने हताश होकर कहा था और फोन रख दिया था। तभी दरवाजे की घंटी बजी थी।
दरवाजे पर काॅलोनी के कुछ लोग थे। उनके पीछे लंपट किस्म के कुछ छोकरों का समूह था। धनराज उनमें से किसी को नहीं पहचानता था। वह आधी रात वाली दुनिया का नागरिक था, उस दुनिया का, जिसमें पड़ोसियों से परिचय रखने की रस्म नहीं होती। शोर जैसा सुनकर सरिता भी दरवाजे तक चली आई थी। सरिता को देखते ही भीड़ का चेहरा खिल उठा था। उनमें से तीन-चार लोग ‘भाभी जी नमस्ते‘ कहते हुए कमरे के भीतर चले आए। बाकी दरवाजे पर खड़े-खड़े कमरे के भीतर रखे सामान का मुआयना करने लगे। इस भीड़ के कुछ चहरों को पिछली ही रात धनराज ने गली के कोने पर रहनेवाले डाॅ. हबीबुल्लाह का सामान उठाकर भागते देखा था।
‘आज रात बहुत चैकस रहना है भाभीजी।‘ उनमें से एक बहुत रहस्यमय अंदाज में बोला था, ‘हमें पक्की खबर मिली है कि नागपाड़ा से एक ट्रक भरकर लोग इस तरफ आएंगे... हम भी तैयार हैं लेकिन...‘
‘हमें क्या करना होगा?‘ सरिता घबराई-सी आवाज में बोली थी।
‘आपको क्या करना है, बस जागते रहना है। रात को कोई लड़का पुलिस से बचकर भागता हुआ आए तो उसे छुपा लेना है...हमारा कोड वर्ड है भालू आया। वैसे हमारे लड़के तो रात भर जागेंगे हीं...‘ दूसरे ने विस्तार से समझाया था फिर मुस्कराते हुए बोला था, ‘लड़कों का जागरण चन्दा तो मिलेगा न?‘
‘हां, हां।‘ सरिता तुरंत भीतर गई और सौ-सौ के दो नोट लाकर बोली, ‘हम लड़ नहीं सकते...यही हमारा योगदान है।‘
वे शोर मचाते हुए लौट गए।
रात की शराब का चंदा बटोरा जा रहा था। शायद शराब पीने के बाद जिस्मों पर घाव बनाने में ज्यादा मजा आता हो या लूट-मार करने की अतिरिक्त ताकत मिलती हो।
उनके जाते ही धनराज बिफर उठा था, ‘यह कैसा तमाशा है? कैसे कैसे लुच्चों से संबंध रखती हो तुम?‘
‘लुच्चे नहीं हैं ये।‘ सरिता ने उल्टा उसे ही डांट दिया था, ‘यही लोग छह दिसंबर की रात तुम्हारे बेटे को मालवणी से सुरक्षित निकाल लाए थे...कुछ मालूम भी है तुम्हें, मालवणी में हमारे कितने लोग काट दिए गए...उन्होंने लोगों की पैंटें उतरवाईं, चेक किया और जितने भी हमारे लोग थे, सबको गाजर-मूली की तरह काट डाला।‘ सरिता के चेहरे पर दहशत और क्रोध एक साथ बरस था, ‘तुम ला सकते थे अपने बेटे को वहां से?‘
धनराज को आश्चर्य हुआ। क्या यह वही सरिता है, जो नजमा को बचा लेने की पवित्र करुणा से भरी हुई थी। और तब उसे अपने बेटे रोहित का खयाल आया।
‘रोहित को मैंने अपनी मम्मी के घर भेज दिया है।‘ सरिता ने जानकारी दी।
सरिता की मां कांदिवली में ही रहती थी, लेकिन फ्लैट में। दंगों में फ्लैट अपेक्षाकृत सुरक्षित रहते हैं। ठीक उसी समय धनराज के मन में यह इच्छा जिद की तरह उठी थी कि कैसे भी करके अपना एक फ्लैट खरीदना है।
नागपाड़ा से तो कोई ट्रक नहीं आया, लेकिन उसी रात बस्ती के बचे हुए बंद घरों को लूटकर उनमें आग लगा दी गई। उन जलने वाले घरों में एक घर सकीना का भी था।
सकीना के जनाजे में धनराज भी शामिल हुआ।
जनाजे में सकीना के बाप याकूब के अलावा सब के सब हिंदू थे। यह गणित धनराज को समझ नहीं आया। जो लोग चारकोप में सकीना का घर जला रहे थे, वो और जो लोग सकीना के जनाजे में शामिल हैं वो, दोनों की जात में क्या फर्क है?
‘क्या धनराज साब।‘ रास्ते में काॅलोनी के टीएल प्रसाद ने पूछा, ‘सुना है, आपकी नौकरी चली गई?‘
‘हां, चली गई है।‘ धनराज ने रुखे लहजे में जवाब दिया।
‘अब क्या करेंगे?‘
‘बड़ा-पाव का ठेला लगाऊंगा।‘ धनराज इतने ठंडे स्वर में बोला कि प्रसाद दूसरे व्यक्ति के साथ लग गया, प्रसाद एक मल्टी नेशनल कंपनी में टीवी इंजीनियर था।
लौटते समय बूंदा-बांदी होने लगी। धनराज याकूब की बगल में आ गया।
‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने सहानुभूति से पूछा।
‘हैदराबाद चला जाऊंगा।‘ याकूब ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, ‘वैसे भी यहां अकेला रहकर क्या करूंगा। हैदराबाद में मामू हैं, पापा हैं और तीसरी बार बर्बाद होने की मुझमें ताकत भी नहीं।‘ याकूब बाकायदा सिसकने लगा, ‘इस बार तो मुझे मेरे लोगों ने बर्बाद किया है।‘
‘मतलब?‘ धनराज चैंक गया।
‘काॅलेज के जिन चार लड़कों ने सकीना की इज्जत लूटी है, वे हमारी ही जात के हैं।‘ याकूब ने रहस्योद्घाटन-सा किया तो धनराज थर्रा गया।
‘तो तुम पुलिस में क्यों नहीं गए? क्या तुम्हें सकीना ने बताया था यह सब?‘ धनराज की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
‘बिन मां की बच्ची और किसे बताती?‘ याकूब ने हिचकी ली, ‘मैं एक गरीब दर्जी...कौन सुनेगा मेरी? वे चारों लड़के नेताओं के शहजादे हैं...सकीना बताती रहती थी उनकी बदमाशियों के बारे में... पर मैं सोचता था कि किसी तरह वह यहां अपनी बारहवीं पास कर ले तो उसे लेकर हैदराबाद चला जाऊं...क्या पता था कि इतनी जल्दी ऐसा हो जाएगा।‘
‘हे भगवान!‘ धनराज का दिमाग कलाबाजियां खाने लगा, ‘ये किस दुनिया में आ गया हूं मैं?‘ फिर वह बहुत उदास हो गया।
×××
उदासी के उन्हीं दिनों में जोधपुर से धनराज का छोटा भाई बिना पूर्व सूचना के अचानक उसके घर आया-पहली बार।
धनराज बहुत खुश हुआ, लेकिन वापस उदास हो गया।
छोटा भाई उससे पांच साल छोटा था, लेकिन उसके सिर के ज्यादातर बाल उड़ गए थे। बचे हुए बालों को सफेदी खा गई थी। उसके गाल पिचके हुए थे और वह थोड़ा झुककर चलता था।
‘दस साल बाद मिल रहे हैं हम।‘ धनराज ने भाई को गले से लगा लिया। ‘लेकिन ये क्या हालत बना ली है तूने?‘
‘कोई नहीं बनना चाहता ऐसा!‘ धनराज का छोटा भाई राकेश चैधरी हंसा, एक विषादग्रस्त हंसी, ‘आपने भी कहां सुध ली हमारी...केवल अड़तीस सौ रुपये की नौकरी में अपने बीवी-बच्चों के साथ मां, भाई और बहन को पालता रहा हूं मैं। ऐसा तो होना ही था।‘ भाई धनराज के गले से अलग होकर बोला और फ्लैट में बसे ऐश्वर्य को ताकने लगा।
‘मैं तो अभी भी नहीं आता...‘ भाई ने गर्दन झुका ली, ‘लेकिन मां ने जबरन भेज दिया। बोली अगर धनराज अपने फर्ज भुला बैठा है तो क्या? बंबई जा और बहन का हक छीनकर ला।‘
‘मतलब?‘ धनराज सन्न रह गया, ‘तू यहां लड़ाई-झगड़ा करने आया है?‘
'नहीं भाई साहब। बिल्कुल नहीं। मां की भाषा है वो। एक थक चुकी मां की भाषा। आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी, जो इन दस वर्षों में चैबीस बरस की हो गई है। उसकी शादी करनी है। मैंने एक लड़का देखा है।‘
'चौबीस बरस की?‘ धनराज सोफे पर ढह गया।
‘आप शायद भूल गए हैं कि एक बहन भी है हमारी।‘ एक हथौड़ा उठा और धनराज की खोपड़ी पर बजा। उसे याद आया-हर साल राखी पर एक मुड़ा-तुड़ा लिफाफा आता था जोधपुर से, बिला नागा, जिसका जवाब उसने कभी नहीं दिया। बारह बजकर पांच मिनट पर एक फोन आता था जोधपुर से ही, उसके जन्म दिन पर, उसके दूसरे भाई बबलू का। तीन-चार साल बाद वह फोन आना भी बंद हो गया।
'मैं रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक हूं, लेकिन मेरे अपने घर में फ्रिज नहीं है।‘ भाई ने भाभी को बताया और हंसने लगा।
अपराध-बोध के बीच टहलती सरिता ने देवर के लिए दहीवाला चिकन बनाया और धनराज ने रम की बोतल खोली, ‘पीता है न?‘
'मुफ्त की मिल जाए तो।‘ भाई फिर हंसने लगा।
आधी रात बीतने तक कुछ-कुछ हताशा, कुछ-कुछ क्रोध और कुछ-कुछ गर्व के साथ रोकश चैधरी बीते हुए दस वर्षों में खड़े अपने संघर्षों के बारे में बताता रहा। धनराज और सरिता किसी अपराधी की तरह सब सुनते रहे।
‘बबलू क्या करता है?‘ बीच बहस में धनराज को बबलू याद आ गया।
‘वो गुंडा बन गया है।‘ राकेश चैधरी ने सूचना दी।
‘क्या बात कर रहा है?‘ धनराज उत्तेजित हो गया, ‘गुंडा मतलब?‘
'क्या मालूम? उसके कुछ दोस्त लोग ही ऐसा बताते हैं। पता नहीं जोधपुर से बाहर कहां-कहां जाता रहता है। दो-एक बार मैंने उसकी अटैची में रिवाॅल्वर देखी तो डर गया। सीधे मुंह बात भी कहां करता है?‘ राकेश के चेहरे पर पुनः बीता हुआ दुःख उतर आया।
‘अरे?‘ धनराज के दुःख बढ़ते ही जा रहे थे।
‘पूरे चार साल इंतजार किया उसने आपका, फिर अंधेरी गलियों में उतर गया। तीन साल से तो अपने घर को पूरी तरह छोड़ दिया है। कभी-कभी ही आता है। अपना एक कांटेक्ट नंबर दिया है उसने मां को। वहां मैसेज देने पर उसे मिल जाता है।‘ राकेश चैधरी ने अपना गिलास उलटा कर दिया।
‘क्या नंबर है उसका?‘ धनराज ने पूछा।
‘वो भी बस मां को ही पता है। कभी फोन करना हो तो मां ही करती है।‘
धनराज को याद आया। उसने घर छोड़ते समय बबलू से वादा किया था कि बंबई में सैटिल होते ही वह उसे बंबई बुला लेगा और फिल्म इंडस्ट्री में स्ट्रगल करने का मौका देगा। बबलू को नाटक वगैरह करने का शौक था और दस साल पहले वह बीस वर्ष का था।
'मैं तो बहुत बुरा आदमी निकला।‘ बिस्तर पर लेटते ही धनराज के दुखों में नये आयाम जुड़ने लगे।
×××
उस रात बहुत-बहुत दिनों के बाद धनराज अपने कठिन दिनों में लौटा।
वहां एक घर था। छोटा-सा दो कमरों का घर, जो पिता के आखिरी अरमान और आखिरी सामान की तरह बचा रह गया था। इस मकान के बन जाने के कुछ ही समय बाद बीच नौकरी में ही पिता चल बसे थे। पिता की मृत्यु से एक-दो महीने पहले ही धनराज देहरादून में अपनी नौकरी गंवाकर सरिता और छोटे रोहित के साथ जोधपुर बसने पहुंचा था, पिता के ही घर में। राकेश उन दिनों शहर की सबसे बड़ी इलेक्ट्राॅनिक्स की दुकान में रेफ्रीजिरेटर मैकेनिक के रूप में लगा हुआ था। उसी दौलत इलेक्ट्राॅनिक्स में धनराज भी बतौर चीफ कैशियर नियुक्त हुआ। पिता की मृत्यु हुई तो धनराज ने भाग-दौड़ करके राकेश को पिता के बदले उन्हीं के दफ्तर में लगवा दिया। पूरा परिवार प्रसन्न था कि घर का एक सदस्य सरकारी मुलाजिम हुआ। सरिता को एक छोटे-से स्कूल में पढ़ाने का काम मिला हुआ था। छोटी-सी ही सही लेकिन एक बंधी हुई राशि मां को पेंशन के रूप में मिलने लगी थी। इन्हीं दिनों में जीते हुए धनराज पिता को कृतज्ञता की तरह याद करता था कि उन्होंने एक घर बनवा दिया था, वरना तो पूरा कुनबा सड़क पर ही आ जाता। जैसे-तैसे समय बीत रहा था।
उन्हीं दिनों बंबई जाते रहने वाले धनराज के एक दोस्त किशोर ने उसके सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह पच्चीस हजार खर्च करे तो किशोर उसे बंबई के सम्राट समूह में घुसवा सकता है। सम्राट समूह बंबई की नामी कंपनी थी। प्रस्ताव खासा आकर्षक था। यह प्रस्ताव धनराज के स्वप्नों को पंख देता था, लेकिन पच्चीस हजार बड़ी राशि थी। धनराज को लगा कि वह जोधपुर में ही सड़ जाएगा। उन दिनों सबके पैसे मां के पास जाते थे- धनराज के, राकेश के, सरिता के, पेंशन के। उस सामूहिक आय से कुनबा चलता था। साझे दुखों और साझे सुखों का आत्मीय जमाना था। मां को भनक मिली तो उसने अपना मंगल सूत्र बेच दिया। सरिता ने भी अपने कड़े उतार दिए। पांच हजार रुपये राकेश ने भी मिलाए।
और इस तरह धनराज बंबई आ पहुंचा। तब तक राकेश की शादी नहीं हुई थी।
किशोर ने उस पैसे का क्या किया, यह धनराज नहीं जानता। उसे बस इतना याद है कि किशोर ने उसे सम्राट समूह के पर्सनल डायरेक्टर से मिलवाया। डायरेक्टर ने उससे एक एप्लीकेशन ली, बायोडाटा के साथ और सातवें दिन वह चकित-मुदित आंखों से अपने एपाइंटमेंट लेटर को देख रहा था। छह महीने के प्रोबेशन पीरियड के साथ धनराज चैधरी सम्राट समूह का मीडिया मैनेजर हो गया था।
बाद की सफलताएं धनराज ने खुद अर्जित की थीं।
इसके बाद धनराज आगे नहीं सोच पाया। कमरे में उसके खर्राटे गूंजने लगे थे।
सुबह राकेश चैधरी ने बताया, ‘मैं कल तीन बजे दोपहर की ट्रेन से लौट जाऊंगा।‘
‘इतनी जल्दी?‘ सरिता ने टोका, ‘दो चार दिन मुंबई तो घूम लेते।‘
‘घूमने की अय्याशी मेरे भाग्य में नहीं है भाभी।‘ राकेश बोला, ‘मैं सरकारी नौकरी में जरूर हूं, लेकिन मेरा काम ऐसा है कि ज्यादा छुट्टियां नहीं मिलतीं। मुझे सैनिक अधिकारियों के घर फ्रिज ठीक करने जाना होता है न!‘
‘आपको मां का मंगलसूत्र लौटाना है।‘ अचानक राकेश ने याद दिलाया तो धनराज हड़बड़ा गया।
‘शादी डेढ़ लाख में हो रही है।‘ राकेश ने ब्यौरे देने शुरू किए, ‘ममता की शादी में पचास हजार मैं लगा रहा हूं। पच्चीस हजार बबलू भी देगा। बाकी पिचहत्तर हजार रुपये आपको देने हैं।‘
‘और ममता के गहने?‘ सरिता ने पूछा।
‘दस साल पहले मां का मंगल सूत्र दस हजार का था, ऐसा मां ने बताया है।‘ राकेश ने सूचना दी, ‘बाकी आप लोगों की श्रद्धा, मैं तो पचास हजार भी कर्जे पर उठा रहा हूं। मैंने दस वर्ष तक सबको पाला है। इसके बाद मेरा दम निकल जाएगा।‘ राकेश ने बेचारगी से कहा, ‘मेरी भी दो बेटियां हैं।‘
हड़बड़ाए हुए धनराज चैधरी ने बड़ी कातर दृष्टि से सरिता को देखा। सरिता ने आंख के इशारे से कहा, हां कह दो।
‘ठीक है।‘ धनराज ने एक लंबी सांस छोड़ी, ‘मां के मंगलसूत्र को जाने दो। ममता के लिए हाथ, कान और गले के गहने हम देंगे। पिचहत्तर हजार का चैक चलेगा?‘
‘हां।‘ राकेश ने राहत की सांस ली और सोचा, इतना बुरा भी नहीं है उसका भाई। राकेश को उम्मीद नहीं थी कि भाई इतनी आसानी से हां कर देगा।
‘अब मैं भी तुझे एक खबर दे ही दूं।‘ धनराज ने मुस्कराने की असफल कोशिश करते हुए कहा, ‘मेरी नौकरी छूट गई है।‘
‘यह तो अच्छी खबर नहीं है। पर क्या कर सकते हैं?‘ राकेश को सचमुच दुःख हुआ।
थोड़ी ही देर में दोस्तों के साथ वीकएंड मनाकर रोहित भी घर आ गया और इतने वर्षों के बाद अपने चच्चू को देख उछल पड़ा।
‘अबे, तू तो बहुत बड़ा हो गया।‘ राकेश ने रोहित को गले लगा लिया, ‘इतना बड़ा भतीजा भी चच्चू को चिट्ठी नहीं लिखता।‘ राकेश ने उलाहना दिया।
‘चिट्ठी का जमाना चला गया चच्चू। तू अपना ई-मेल एड्रेस बना ले फिर देख मैं तुझे रोज एक ई-मेल करूंगा।‘ रोहित ने राकेश के उलाहने को मजाक में बदल दिया। फिर वह अपने चच्चू को लेकर बिल्डिंग के टैरेस पर चला गया।
राकेश को विदा करने स्टेशन तक रोहित ही गया। रोहित बहुत खुश था कि ममता बुआ की शादी में जोधपुर जाएगा। चच्चू की शादी में भी वह जोधपुर नहीं गया था, क्योंकि उन दिनों धनराज की सम्राट समूह में नयी-नयी नौकरी लगी थी और वह खुद इतना बड़ा नहीं हुआ था कि अकेले ही जोधपुर चला जाता। धनराज उन दिनों सम्राट समूह में दिन-रात एक किए हुए था। उसे समूह में खुद को प्रमाणित करना था।
‘खुद को प्रमाणित करते-करते तुम चूतिया बन गए गुरु।‘ धनराज ने सोचा और नम आंखों के साथ भाई को विदा किया।
उस रात देर रात तक नींद नहीं आई।
पता नहीं क्यों धनराज को इन दिनों नींद नहीं आती। देर रात तक वह अपनी विशाल काॅलोनी में जहां-तहां घूमता रहता। पहले जीवन नाक की सीध में चलता था, इसलिए वह काॅलोनी तो क्या अपनी सोसायटी तक के लोगों से अपरिचित था, मगर अब तो वह पूरी काॅलोनी के ही रहस्यों से दो-चार होने लगा था।
पता नहीं क्या सोचकर बिल्डर ने काॅलोनी का नाम गोल्डन नेस्ट रखा था। डाल-डाल और पात-पात तो क्या, वहां कहीं भी कोई सोने की चिड़िया बसेरा नहीं करती थी। इस सुनहरे घोंसले को बिल्डर ने इस तरह बनाया था कि उसमें सभी आय वर्ग के लोग रह सकें। ऊंची-ऊंची दीवारों से घिरी उस काॅलोनी का विशाल मेन गेट बंद होते ही वह पूरी तरह से बंद, सुरक्षित किले जैसी हो जाती थी। गेट के भीतर की तरफ खुलते ही बीचों-बीच दूर तक चली गई सड़क के दोनों ओर बाजार था। सड़क के पहले दाएं मोड़ पर वन रूम किचन के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-एक था। दूसरे दाएं मोड़ पर वन बेड रूम हाॅल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-दो था। सड़क के पहले बाएं मोड़ पर टू बेड रूम हाॅल के ढाई सौ फ्लैटों वाला सेक्टर-तीन था और दूसरे बाएं मोड़ पर सेक्टर-चार था। सड़क जहां समाप्त होती थी वहां बंगलेनुमा पचास रो हाउसेज थे। यह सेक्टर-पांच कहलाता था। इस काॅलोनी के भीतर एक बहुत बड़ा पार्क, स्वीमिंग पुल, अस्पताल, ब्यूटी पार्लर, पोस्ट आॅफिस, सिनेमा हाॅल, स्कूल, हेल्थ क्लब और बैंक भी था। सेक्टर पांच यानी रो हाउसेज आधे से ज्यादा खाली थे, बाकी किराए पर उठे हुए थे। इनमें अधिकतर निजी नर्सिंग होम, कोचिंग क्लासेज, ब्यूटी पार्लर, अंग्रेजी के प्राइमरी स्कूल, कंप्यूटर सेंटर, फेमिली रेस्त्रां, साइबर कैफे और कम्युनिकेशन सेंटर खुल हुए थे। सड़क के दोनों ओर बने बाजार सभी तरह की दुकानों से भरे हुए थे। जरूरत का हर सामान वहां मौजूद था। काॅलोनी में दो मंदिर भी थे-एक गणपति का, दूसरा शिरडी के साईंबाबा का। हां, मस्जिद वहां एक भी नहीं थी। वह काॅलोनी के बाहर, हाईवे के उस तरफ, स्टेशन जाने वाली सड़क पर बसे नया नगर इलाके में थी।
यह छह दिसंबर के बाद हुए दंगों का ध्रुवीकरण था कि ज्यादातर मुसलमान हाईवे के उस तरफ और हिंदू हाईवे के इस तरफ सिमट गए थे। नया नगर का पूरा इलाका लगभग मुस्लिम परिवारों का था। मीरा रोड के हिंदू नया नगर को मिनी पाकिस्तान कहते थे। हाईवे के उस पार भी काफी परिवार हिंदुओं के थे लेकिन ज्यादा आबादी मुस्लिमों की ही थी। वहां भी जब जिसको मौका मिलता, अपना घर बेचकर गोल्डन नेस्ट आ जाता था। गोल्डन नेस्ट में मुसलमानों के सात-आठ परिवार ही थे, लेकिन वे सभी वहां किराएदार थे, मकान मालिक नहीं। उन्हीं में से एक टेलर मास्टर याकूब भी था, जिसकी लड़की सकीना ने चूहे मारनेवाला जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। वह सेक्टर-एक में किराएदार ही था और अब हैदराबाद चला गया था।
धनराज का घर सेक्टर-दो में था।
सेक्टर-दो में ज्यादातर लोग सरकारी या गैर सरकारी कंपनियों में काम करनेवाले कर्मचारी थे, जिन्होंने इधर-उधर से कर्ज लेकर चालीस की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते अपने फ्लैट बना लिए थे। सेक्टर-एक में निम्न-मध्यवर्गीय लोग रहते थे। इनमें छोटे-मोटे अध्यापक, लोअर डिवीजनल क्लर्क, आॅटो टैक्सी चलानेवाले, फिल्मों और सीरियलों में काम पाने के लिए स्ट्रगल कर रहे भविष्य के अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार-संगीतकार निवास करते थे। सेक्टर तीन और चार साहबों की दुनिया थी। इनमें डाॅक्टर, इंजीनियर, छोटे-बड़े प्रोड्यूसर, शेयर मार्केट के ब्रोकर, बैंकों के अधिकारी, मल्टीनेशनल कंपनियों के कर्मचारी, टीवी चैनलों के कार्यक्रम अधिकारी, कालबा देवी के छोटे व्यापारी, मेडिकल स्टोरों के मालिक, अखबारों के संवाददाता, वकील और प्रोफेसर रहा करते थे।
सेक्टर तीन और चार के नागरिक सेक्टर एक और दो की तरफ जाना तो दूर झांकना भी पसंद नहीं करते थे। यह अलग बात है कि बाजार ने उनकी निजी पहचान मिटा दी थी। सेक्टर एक और दो के लोग भी अपनी-अपनी विशिष्टता कायम रखने का प्रयत्न करते थे लेकिन उनकी संपन्नता में दस बाई पंद्रह के सिर्फ एक कमरे का फर्क था, इसलिए उन दो सेक्टरों में आवाजाही चलती रहती थी।
वह मोलभाव करने और सब्जियां खरीदने में पारंगत हो गया था। काॅलोनी और उसके बीच जो अपरिचय का विंध्याचल था, वह क्रमशः गलने लगा।
धनराज ने देखा कि दैनंदिन जीवन जीते, संघर्षरत लोगों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन, कहां, क्या काम कर रहा है या नहीं कर रहा है। वे सिर्फ इस बात पर नजर रखते थे कि किसके किचन में क्या पका, किसके घर कौन-सा नया सामान आया, किसने किसके जन्मदिन पर क्या दिया या किस घर की लड़की या लड़का किससे फंसा हुआ है। रोजगार उनके लिए सिर्फ माध्यम था, ताकत या घमंड का प्रतीक नहीं। उनके दुःख इस विषय में लिपटे थे कि सुबह पानी समय पर नहीं आया और उन्हें बिना नहाए काम पर जाना पड़ा। समय पर ट्रेन पकड़ लेना उनके लिए सबसे बड़ी जंग थी। फोन के खराब हो जाने पर वे घंटों बहस कर सकते थे और बिजली चले जाने पर सड़कों पर ट्रैफिक जाम कर सकते थे।
धनराज ने पाया कि काॅलोनी की औरतें उससे बात करने लगी हैं और बच्चे नमस्ते अंकल कहने लगे हैं। वाचमैन उससे अपनी तकलीफें शेयर करने लगे हैं और दुकानदार लगातार गिरते बाजार का रोना रोने लगे हैं। इतने सारे लोगों में किसी को इस बात की चिंता नहीं थी कि धनराज की नौकरी चली गई है। उन्हें लगता था कि ऐसे लोगों की नौकरियां लगती-छूटती रहती हैं।
‘भाई साहब, हमारा एक काम करेंगे क्या?‘ एक दिन रास्ते में उसे देविका ने टोक दिया।
‘क्या?‘ धनराज ने देविका को जांचा।
वह ऊंची, भरी-पूरी, शानदार महिला थी। अगर उसके पास अच्छे कपड़े, अच्छा मेकअप और कामचलाऊ जेवर होते, तो वह सेक्टर एक और दो की हेमा मालिनी बन सकती थी। वह सेक्टर-एक में रहती थी और धनराज समेत सेक्टर-दो के कई घरों में उसका आना-जाना था।
‘इनकी हिम्मत नहीं पड़ रही है आपसे बात करने की।‘ उसने अपने पति का पक्ष सामने रखा, ‘ये लेडीज के अंडर गार्मेंट्स बेचने वाली कंपनी के सेल्समैन हैं। टूर से लौटकर इन्हें अपनी रिपोर्ट देनी पड़ती है। लेकिन ये अंग्रेजी नहीं जानते। क्या आप इनकी हिंदी रिपोर्ट को अंग्रेजी में बना देंगे?‘
‘ठीक है।‘ उसने गर्दन हिला दी।
‘धन्यवाद भाई साहब।‘ देविका गदगद हो गई। रात के भोजन पर सरिता ने बताया, ‘देविका के घर से तुम्हारे लिए मिर्ची का अचार और गट्टे की भाजी आई है।‘
लेकिन देविका के पति रतन केड़िया की मार्केट रिपोर्ट्स ने धनराज को विचलित कर दिया।
रतन केड़िया की रिपोर्टें देसी रोजगार का मर्सिया थीं। जयपुर हो या जोधपुर, गोवा हो या नागपुर, सातारा हो या सांगली, अजमेर हो या कोल्हापुर, पुणे हो या नासिक, रत्नागिरी हो या इंदौर-हर जगह स्त्रियों के अंतःवस्त्रों पर नामी ब्रेंड हावी थे। बड़े शहरों में स्त्रियों के तन विदेशी ब्रेंड ढक रहे थे। ऐसे में रतन केड़िया की लोकल कंपनी कहां ठहर सकती थी?
कुछ ही समय बाद रतन केड़िया की रिपोर्टें आनी बंद हो गईं।
रतन केड़िया ने बताया कि उसे नौकरी से निकाल दिया गया है और हंसने लगा।
नौकरी चले जाने पर ये लोग हंसते क्यों हैं? धनराज ने सोचा लेकिन उसे जवाब नहीं मिला।
उन्हीं दिनों एक रात वह थैले में सब्जियां, अंडे और शराब लेकर लौट रहा था कि उसने सेक्टर दो के सेक्रेटरी हिमांशु शाह को उसके फ्लैट के नीचे खड़े सिगरेट पीते देखा।
‘नीचे क्यों खड़े हो?‘ धनराज ने यूं ही सवाल उछाल दिया।
शाह ने नयी सिगरेट सुलगा ली, ‘आज मुझे नौकरी से हटा दिया गया है।‘ शाह खिसिया कर बोला, ‘समझ नहीं आ रहा है कि यह बात ऊपर जाकर हर्षिता को कैसे बताऊं?‘
हर्षिता हिमांशु की पत्नी का नाम था।
हिमांशु अपोलो टायर में काम करता था। बीस दिन पहले ही उसने अपनी बेटी का पहला जन्म दिन मनाया था और पूरे सेक्टर-दो को चिकन बिरयानी की दावत दी थी। धनराज के लिए उसने विशेष इंतजाम किया था। लोगों की नजरें बचाकर वह धनराज को अपने बेडरूम में छोड़ आया था, जहां राॅयल चैलेंज की एक बाॅटल तीन-चार सोडों के साथ पड़ी थी।
धनराज तीन पैग पीकर वापस टैरेस पर चलती पार्टी में शरीक हो गया था।
‘अब क्या करोगे?‘ धनराज ने पूछा।
‘देखते हैं।‘ हिमांशु बोला, ‘कुछ नहीं हुआ, तो घर-बार बेचकर गांव चले जाएंगे।‘ हिमांशु अपने फ्लैट की सीढ़ियां चढ़ने लगा।
गांव? धनराज की हलक में कांटे-से गड़ने लगे। गांव के नाम पर उसे सुबह ही पढ़ी गई एक खबर याद आ गई। वह मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के बरानांद गांव की खबर थी।
शताब्दी के सबसे भीषण सूखे के कारण ग्रामीण इलाकों में स्थितियां विकट हो गई थीं। गांव के लोग पेड़ों की छाल पीसकर खा रहे थे। फसलें तबाह हो गई थीं। जिन लोगों के पास किराए लायक पैसे थे, वे काम की तलाश में निकट के शहरों को निकल गए थे। जिनके पास नहीं थे, वे गांव में भूखे-प्यासे मर रहे थे।
और यह केवल बरानांद गांव की कहानी नहीं थी।
गांव-दर-गांव भूख-प्यास का प्रेत मंडराता फिर रहा था। कुटीर उद्योग तबाह हो गए थे। रोजगार उपलब्ध नहीं थे। ऐसी कोई कंपनी नहीं बची थी, जहां दस, बीस या तीस प्रतिशत कर्मचारी छंटनी के शिकार नहीं हो रहे थे।
ऐसे में धनराज का जन्म दिन आया।
सुबह-सुबह जगाकर सरिता और रोहित ने धनराज को विश किया, फिर सरिता ने ताना जैसा मारा, ‘आज कोई पार्टी-वार्टी नहीं हो रही?‘
धनराज ने नींद की दुनिया में जाकर देखा -
वह एक तीन सितारा होटल का पार्टी रूम था, जहां उसके जन्मदिन की पार्टी प्रायोजित की गई थी। शहर के करीब पचास लोग उस पार्टी में शरीक थे। उनमें एक टीवी चैनल का कार्यक्रम प्रमुख था। कुछ पत्रकार थे। कुछ ठेकेदार थे, कुछ होलसेल विक्रेता थे। दो बैंकों के डिप्टी मैनेजर थे। अनेक बिजनेस समूहों के मीडिया मैनेजर थे। कुछ पी आर ओ और कुछ सरकारी अधिकारी थे। एक इंटरनेट कंपनी का कंसलटेंट एडीटर था और थीं कुछ उदीयमान माॅडल। सब-के-सब कोई-न-कोई तोहफा लेकर आए थे और अपने-अपने ड्रिंक्स के साथ अपने-अपने जुगाड़ में व्यस्त थे। एक फोटोग्राफर इस खुशगवार मौके को कैमरे में कैद कर रहा था। वेटर पनीर टिक्का, चिकन टिक्का और सीख कबाब सर्व करने में तल्लीन थे। दुखों की सूचनाओं तक से दूर जगर मगर करता एक बाजार वहां बिछा पड़ा था।
जन्मदिन वाले रोज धनराज सुबह-सुबह तैयार होकर फोन के पास बैठ जाता था। उस दिन वह दफ्तर से छुट्टी लेता था। कई वर्षों से यही नियम था। हर बरस वह गिनती करता था कि जन्म दिन की बधाई देने वालों में कितने लोगों की घट-बढ़ हुई। यह उसका प्रिय शगल था। बधाई देनेवालों में से कुछ को वह शाम को होनेवाली पार्टी में निमंत्रित करता था। सम्राट समूह से कोई कांट्रेक्ट हासिल करने का इच्छुक व्यापारी यह पार्टी आयोजित करता था। इस पार्टी में सौदों का लेन-देन भी होता था। ऐसी अनेक पार्टियों के फोटो एलबम धनराज की वाॅल यूनिट की शोभा बढ़ा रहे थे।
लेकिन इस बार धनराज देर तक सोता रहा। पत्नी के ताने पर वह मुस्करा भर दिया। दिन भर में कुल मिलाकर तीन फोन आए। एक उसके भाई राकेश चैधरी का, एक उसकी सास का और तीसरा उसके फैमिली डाॅक्टर राणावत का।
शाम सात बजे चैथा फोन आया उसके पड़ोसी हिमांशु शाह और उसकी पत्नी हर्षिता का। उसे याद आया-एक जन्मदिन के भव्य आयोजन में उसने शाह दंपत्ति को भी निमंत्रित किया था।
‘तुम्हारा फोन आने से सचमुच अच्छा लगा हिमांशु।‘ धनराज द्रवित हो गया।
'क्या बात करते हैं धनराज जी।‘ हिमांशु ने गर्मजोशी से कहा, ‘आज आपके जन्मदिन की पार्टी हमारी तरफ से हमारे घर में है। आप भाभी और रोहित के साथ आठ बजे तक पहुंच जाइए।‘
धनराज बेआवाज बिखर गया।
निष्कपट जीवन नींद के बाहर ही है धनराज, धनराज ने सोचा। तुमने व्यर्थ ही अपना जीवन यों सुखा डाला। पैसे कमाने के बजाय अगर तुमने रिश्ते कमाए होते, तो जीवन का रंग आज कुछ और ही होता। और पैसे भी क्या कमाए? एक छोटा-सा फ्लैट, जरा-सा बैंक बैलेंस और वह भी अपनी नींदें बेचकर? मां जैसे दुनिया के सबसे कीमती रिश्ते की अकारण नाराजगी मोल लेकर।
धनराज को अपनी मां याद आ गई।
बचपन वाली मां।
मां धनराज का जन्मदिन मना रही थी।
वह मुजफ्फरनगर का सड़क किनारे बना एक सीलन भरा कमरा था, जिसके बाहर बने बड़े से नाले से कीचड़ और मल-मूत्र लगातार बहता रहता था। उन दिनों पिता का ट्रांसफर जोशीमठ में हो गया था और पिता ने परिवार को यहां रखा हुआ था क्योंकि जोशीमठ में परिवार को साथ रखने की अनुमति नहीं थी।
मुजफ्फरनगर के उस किराए के कमरे में माथे पर टीका लगाकर मिठाई के नाम पर गुड़ खाया था धनराज ने और गुल्ली-डंडा खेलने मैदान में चला गया था। तब तक बबलू और ममता पैदा नहीं हुए थे, लेकिन उनके पैदा होने के बाद भी घर में सिर्फ धनराज का ही जन्म दिन मनाया जाता रहा। पता नहीं क्यों?
×××
पता नहीं धनराज को इन दिनों बहुत अजीब और बेहूदा-बेहूदा खयाल आते रहते और वह चिंता से भर जाता। पढ़-लिखकर या पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए सेक्टर-एक के जवान छोकरों को धनराज पार्क की बेंचों, चायघरों या पान की दुकानों के बाहर खाली बैठे देखता और उसे लगता इनमें से कुछ लड़के जल्दी ही अरुण गवली या दाउद इब्राहिम के गैंग में शामिल हो जाएंगे। वह उन्हें अपनी कल्पना में सेक्टर-चार के लोेगों को शूट करते देखता और पसीने-पसीने हो जाता। वह देखता कि रोहित की कंपनी भी बंद हो गई है और वह गोल्डन नेस्ट के बाहर उबले हुए अंडे बेचने लगा है। कभी वह देखता कि उसने अपना मकान बेचकर सेक्टर-एक में वन रूम किचन ले लिया है और आॅटो चलाने लगा है। कभी उसे दिखाई देता कि उसने बबलू को फोन किया है और बबलू ने मुंबई आकर सम्राट समूह के चेयरमैन का भेजा भून दिया है।
जब कभी वह मार्केट में खरीदारी के लिए निकलता, तो एक-एक दुकान को गौर से देखता और सोचता कि वह किस चीज की दुकान खोल ले, ताकि व्यस्त भी रहे और चार पैसे भी कमाए। लेकिन हर दुकान का मालिक उसे बताता कि उसका धंधा मंदा चल रहा है। दुकानें उठ रही हैं। व्यवसाय बैठ रहे हैं। अपहरण, डकैती और हत्याएं बढ़ रही हैं।
धनराज जब-जब एटीएम मशीन से पैसे निकालने जाता, अपना बैलेंस देख कर चिंताग्रस्त हो जाता। बैंक में पैसे जमा नहीं हो रहे थे, सिर्फ निकलते जा रहे थे। अगले महीने ममता की शादी थी। हाथ, गले और कान के जेवरों का उसने जो वादा किया था, उनका एस्टीमेंट पैंतीस हजार बैठ रहा था। कम से कम दस हजार आने-जाने-रहने में खर्च होनेवाले थे।
अभी तक धनराज ने रोहित की तनख्वाह पर नजर नहीं डाली थी, लेकिन अब उसे रोहित के खर्च खटकने लगे। उसने पाया कि रोहित ने अब तक जो भी कमाया था, वह सब का सब महंगी कमीज-पैंटों, वीकएंड पार्टियों, सिनेमा और जूतों पर उड़ा दिया था, अब उसे जीन्स और टाॅप पहनकर कभी-कभी घर चली आनेवाली रोहित की गर्ल फ्रेंड्स भी अखरने लगी थीं।
‘तू मोबाइल और बाइक कब लेगा यार?‘ लड़कियां धनराज के सामने ही रोहित को नये खर्चों के लिए उकसातीं और धनराज कुढ़ता रहता।
इसी कुढ़न में एक दिन धनराज ने अपना एसी और वीसीआर बेच दिया और पैसे बैंक में जमा कर दिए। उसका तर्क था कि मुंबई में एसी की कोई जरूरत नहीं है और वीसीआर गए जमाने की चीज हो गई है। इतने सारे चैनल हैं, चैबीस घंटे चलती फिल्में हैं, ऐसे में वीसीआर की कोई उपयोगिता नहीं है। कुछ दिनों के बाद उसने एक साइबर कैफे को अपना कंप्यूटर, प्रिंटर, स्कैनर मय कंप्यूटर टेबल के बेच दिया। उसका कहना था कि अब रोहित पूरे दिन दफ्तर में व्यस्त रहता है और शामों को कंप्यूटर के नये कोर्स की कक्षाओं में। इसलिए घर में फालतू सामानों की भीड़ बढ़ाने की कोई तुक नहीं है। कुछ दिनों के बाद धनराज अपनी फैक्स मशीन भी बेच आया। उसका कहना था कि जब नौकरी ही नहीं है तो फैक्स किसके आएंगे?
सरिता और रोहित आदर्श पत्नी और आज्ञाकारी बेटे की तरह जीते आए थे, इसलिए उन्होंने धनराज की हरकतों का सीधा विरोध तो नहीं किया, लेकिन अब वे दोनों भी चिंतित हो गए। दोनों को एक साथ लगा कि धनराज कहीं उन्हें मुंबई के पहलेवाले दिनों में तो नहीं ले जाना चाहता है! दोनों को लगा कि समय रहते जाग जाना चाहिए।
एक रात दो पैग पी लेने के बाद धनराज का सामना रोहित से हो गया। उसने टीवी बंद किया और रोहित को अपने सामने बिठा लिया। रोहित चैकन्ना हो गया।
‘देखो, मैंने तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला है। तुम्हारी खुशियों का दुश्मन नहीं हूं मैं। लेकिन तुम खुद बताओ...‘ धनराज ने तीसरा पैग बनाया, ‘अब जब तुम्हारा बाप बेरोजगार है, ऐसे में क्या तुम्हें शोभा देता है कि तुम अपनी पगार वेनह्यूजन की पैंटों, चिरागदीन की शर्टों और दो-दो हजार के जूते खरीदने में खर्च करो...वीकएंड की पार्टियों में हजार-पांच सौ का कंट्रीब्यूशन करो...मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए रोहित, तुम्हें छह हजार रुपये मिलते हैं। एक हजार रुपये अपने खर्चे के लिए रखो और पांच हजार रुपये बैंक में जमा करा दो। एक साल में साठ हजार रुपये...यू नो, ये पैसा एक दिन तुम्हें बहुत ताकत देगा।‘ धनराज ने तीसरा पैग समाप्त कर दिया।
‘मैं ऐसा नहीं सोचता पापा...मैं कमाने और खर्च करने में यकीन रखता हूं। रोहित ने पहली बार अपने पिता के साथ बहस की, ‘आप देखते ही हैं कि डी गैंग के शूटर बिल्डरों, प्रोड्यूसरों, डाॅक्टरों को गोलियों से भून देते हैं और उनका पैसा यहीं पर रह जाता है। पिछले दिनों सेक्टर चार में रहने वाला मेरा एक दोस्त मकरंद जोगेश्वरी में एक खंभे से टकराकर ट्रेन से गिरा था। वह अब तक कोमा में है। मकरंद एक मल्टीनेशनल कंपनी में वेब डिजाइनर था।‘
‘अरे वाह!‘ धनराज तालियां बजाने लगा, ‘तुम तो बहुत समझदार हो गए हो।‘ धनराज हसंने लगा, ‘वैसे मैं तुम्हें बता दूं कि सेक्टर-चार के लड़कों के साथ तुम्हारी दोस्ती बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं।‘
‘तो क्या मैं सेक्टर-एक के टपोरी लड़कों के साथ रहा करूं?‘ रोहित ने तिलमिला कर जवाब दिया।
धनराज चुप हो गया। वह खुद भी यह कहां चाहता था कि उसका बेटा सेक्टर-एक के लड़कों जैसा हो जाए। तो फिर?
क्या चाहता है धनराज? धनराज ने सोचा और चैथा पैग बनाने लगा।
‘अब बस करो।‘ आखिर सरिता ने हस्तक्षेप किया, ‘लड़के की तनख्वाह पर आंख गड़ाने से बेहतर है कि तुम शराब पीना छोड़ दो।‘
‘क्या?‘ धनराज आहत हो गया, ‘तुम भी? ओ.के. छोड़ देता हूं।‘ धनराज ने कहा और रम की बची हुई बाॅटल को खिड़की से बाहर फेंक दिया।
रात के अंधेरे और सन्नाटे में फ्लैट के पिछवाड़े गिरने के बावजूद बाॅटल के टूटने ने खासा शोर किया। वाचमैन की सीटियां गूंजने लगीं। दो-तीन लोगों ने अपनी-अपनी खिड़िकियों से झांककर भी देखा। धनराज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। उसकी आंखें एक अजीब-से अचंभे में पहुंचकर स्थिर हो गई थीं, फिर वह सोफे पर ही पसर गया।
बहुत दिनों के बाद धनराज बिना खाना खाए सो गया।
'साॅरी पापा।‘ सोते हुए धनराज के माथे पर किस किया रोहित ने, ‘मैं आपकी तकलीफ को समझता हूं।‘
सरिता की आंख में बड़े दिनों के बाद कुछ आंसू आए। वह धनराज के जूते उतारने लगी। देर तक बेडरूम की खिड़की से बाहर के अंधेरे को ताकती हुई वह सोचती रही कि उनकी गृहस्थी को किसका शाप लगा है।
उस रात दिल्ली के एक महंगे इलाके में एक धन पशु काॅलेज की एक लड़की से बलात्कार करने के बाद उसे काट-काटकर तंदूर में भून रहा था और मंुबई के कुछ होटलों में बीवियां बदलने का खेल चल रहा था।
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गोल्डन नेस्ट के बाहर हाईवे पर शेयर आॅटो मिलते थे। हैरान परेशान धनराज ने शेयर आॅटो किया और पांच रुपये में भायंदर स्टेशन पहुंच गया। पुल पार करके वह भायंदर पश्चिम पहुंचा और उसने भगत सिंह पुस्तकालय की सदस्यता ले ली।
इस पुस्तकालय में होनेवाली एक छोटी-मोटी-सी कवि गोष्ठी में एक बार वह मुख्य अतिथि बनकर आया था।
‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी‘ नाम की किताब इशु कराकर वह पुस्तकालय की मेज के एक कोने पर चला गया। उसे किताब के नाम ने आकर्षित किया था। लेकिन जल्दी ही वह ऊब गया। उसने किताब वापस कर दी और बाहर आ गया।
रेल की पटरियों के पास एक बड़ी-सी खुली जमीन, जिस पर लकड़ी के मोटे-मोटे स्लीपर पड़े थे, पर धनराज ने बहुत सारे बूढ़ों को देखा। उसे लगा, बूढे़ लोगों की कोई सभा है। उन बूढ़ों के पास से गुजरता हुआ धनराज वापस पुल पर आ गया और पुल पर चढ़ती-उतरती भीड़ को देखने लगा।
बहुत भीड़ हो गई है। उसने सोचा और खुद भी भीड़ का हिस्सा बन कर सीढ़ियां उतरने लगा। पूर्व में आकर वह शालीमार फर्नीचर के उपाध्याय जी के पास बैठ गया। धनराज के घर का ज्यादातर फर्नीचर शालीमार से ही गया था। उन्होंने धनराज के लिए काॅफी मंगवा ली।
‘बड़े दिनों के बाद आना हुआ?‘ उपाध्याय जी ने पूछा, ‘क्या चाहिए?‘
‘अब घर में जगह ही कहां बची है।‘ धनराज ने जवाब दिया, ‘सब कुछ तो है।‘
'सो तो है।‘ उपाध्याय जी खिसियाकर बोले, ‘इस धन्धे में भी बहुत मंदी आ गई है। कई-कई दिन बीत जाते हैं कोई कुछ खरीदने ही नहीं आता। लगता है सब लोग सब कुछ खरीद चुके हैं। अब तो दुकान का किराया निकालना भी भारी पड़ रहा है।‘ उपाध्याय जी ने अपनी विशाल दुकान को निहारते हुए ठंडी सांस ली।
धनराज ने बूढ़ों के बारे में पूछा, ‘वे कौन लोग हैं?‘
उन्हें उनके बेटे-बहुओं या दामाद-बेटियों ने घर से निकाल दिया है। इसलिए दिन भर पटरियों पर टाइम पास करते हैं।
‘क्यों?‘ धनराज थोड़ा-सा चकित हुआ और थोड़ा-सा उदास, ‘घर से क्यों निकाल दिया है?‘
‘क्या है कि लोग एक-एक कमरे के घरों में रहते हैं। बेटा या दामाद काम पर चले जाते हैं तो बेटी-बहुओं के बीच एक कमरे में कैसे रहेंगे? इन्हें सुबह निकाल दिया जाता है और रात को वापस ले लिया जाता है।‘ उपाध्याय जी ने समझाया।
इसका मतलब अपने सेक्टर-एक के भी कुछ बूढ़ों का जीवन यही होगा। धनराज ने सोचा और पूछा, ‘और इनका खाना?‘ वह बूढ़ों को लेकर चिंतित हो गया।
'खाना, रात को मिलता है न! दिन में बड़ा पाव वगैरह खा लेते होंगे।‘ उपाध्याय जी ने लापरवाही से कहा, ‘ये तो कुछ भी नहीं है। मैं कुछ ऐसे बूढ़ों को जानता हूं, जिन्हें उनके बेटों ने विरार से चर्चगेट का पास बनवा दिया है। बूढ़े सुबह विरार ट्रेन में जाकर बैठ जाते हैं और रात को उसी ट्रेन से उतरकर अपने घर चले जाते हैं।‘
‘और लैटरीन-बाथरूम?‘ धनराज पूछ बैठा।
‘उसके लिए स्टेशन हैं न!‘ उपाध्याय जी को धनराज की अज्ञानता पर चिढ़-सी मची, ‘और बताइए क्या चल रहा है?‘
‘चलना क्या है?‘ धनराज मुस्कराया और वापस शेयर आॅटो में बैठकर घर लौट आया।
धनराज का घर!
रात को जब धनराज ने बिना शराब पिए खाना खा लिया तो सरिता खुश होने के बजाय दुखी हो गई। उसके भीतर एक खरा पश्चाताप उग आया, ‘इतनी कठोर बात नहीं करनी चाहिए थी इस आदमी से, जिसने परिवार को सारे सुख दिए। क्यों औरतें पति और बेटे में से किसी एक के साथ खड़ी नहीं रह पातीं?‘ सरिता ने सोचा और डबडबाई आंख लिए किचन में चली गई।
ग्यारह बजे के करीब रोहित घर में घुसा। उसने धनराज को सोफे पर पड़े देखा तो इशारों से सरिता से पूछा। सरिता ने उस चुप रहने का इशारा किया और रोहित चुपचाप बेडरूम में आ कपड़े बदलने लगा।
खाना खाकर रोहित हाॅल में आया और बोला, ‘पापा, लाइट बंद कर दूं?‘
‘नहीं।‘ धनराज ने जवाब दिया और करवट बदल ली। फिर पूरी रात धनराज ने दो ही काम किए-दाएं से बाएं करवट ली और बाएं से दाएं।
उसकी करवटों को देर रात तक महसूस किया रोहित और सरिता ने।
अगली सुबह फ्रेश होकर धनराज वापस भगतसिंह पुस्तकालय चला गया। उसने अल्मारियों में लगी बहुत-सी किताबों को देखा-क्राइम एंड पनिशमेंट, अन्ना कैरेनिना, राम की शक्ति पूजा, मुक्ति बोध रचनावली, उखड़े हुए लोग, मां, सारा आकाश, आदि विद्रोही, कुरू कुरू स्वाहा, एक चिथड़ा सुख, अपने-अपने अजनबी, मित्रो मरजानी, भागो नहीं दुनिया को बदलो, पूंजी, रिवोल्यूशन इन द रिवोल्यूशन, हंड्रेड इयर्स आॅफ साॅलीट्यूड, आधी रात की संतानें, तमस, काला जल, कव्वे और काला पानी, दर्शन दिग्दर्शन, कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो, कसप, अंधेरे बंद कमरे, ठुमरी, गोदान, कनुप्रिया, अंधा युग, मुर्दाघर, बेदी समग्र, मंटोनामा, दादर पुल के बच्चे।
फिर वह थक गया। किताबों से उसका वास्ता बीए पास करने तक का ही रहा था। उसे लगा यह दुनिया उसकी नहीं है। बहुत-बहुत हताश होकर वह वापस मेज पर बैठ गया। देर तक बैठा रहा फिर थके कदमों से बाहर निकल आया।
बाहर जीवन युद्धरत था। लोग हाथों में ब्रीफकेस लिए, कंधे पर झोला लटकाए, सिर पर बोझ उठाए ट्रेन पकड़ने के लिए भागे जा रहे थे। टिकट विंडों की लंबी-लंबी कतारों में खड़े थे, रेलवे स्टाॅल पर खड़े-खड़े बड़ा पाव, पाव समोसा, कचैरी खा रहे थे, कोक पी रहे थे, कानों से मोबाइल चिपकाए संदेश सुन रहे थे, भागकर ट्रेन के पायदान पर लटक रहे थे। किसी के पास किसी के लिए फुर्सत नहीं थी। भीड़ को देख अंदाजा लगाना मुश्किल था कि कौन काम पर जा रहा है और कौन काम से निकाला जाकर लौट रहा है। किसके पास पैसा है और किसके पास पैसा नहीं है। सबके चेहरों में सिर्फ एक ही समानता थी कि सबके चेहरे खामोश, चिंताग्रस्त और खोए-खोए से नजर आते थे-फिर चाहे वे चेहरे स्त्रियों के हों या पुरुषों के।
धनराज पुल पार करके भायंदर पूर्व की तरफ आ रहा था कि एक ठीक-ठाक से दिखते लड़के ने उसे सीढ़ियों पर टोक दिया, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘ धनराज अचकचा गया और तेजी से बोला ‘हां हैं, क्यों?‘
‘मुझे दीजिए न!‘ लड़के ने आग्रह किया।
‘क्यों भई!‘ धनराज ने पूछा। लड़का कहीं से भी भिखारी जैसा नहीं लगता था।
‘बड़ा पाव खाना है।‘ लड़के ने गर्दन झुका दी।
‘घर से भागकर आए हो?‘ धनराज ने पूछा।
‘हां।‘ लड़के ने स्पष्ट जवाब दिया।
‘कहां से?‘ धनराज की उत्सुकता में इजाफा हुआ।
‘बिहार से।‘ लड़का मासूमियत से बोला।
‘क्यों?‘ धनराज के तेवर आक्रामक हुए।
‘काम की तलाश में।‘ लड़का सहमा-सा बोला।
‘तो काम करो। भीख क्यों मांगते हो?‘ धनराज ने उसे नसीहत और तीन रुपये एक साथ दिए।
‘लाइए काम।‘ लड़का तत्परता से बोला, ‘मैं काम करने को तैयार हूं। सब बोलते हैं, काम करो, पर काम देता कोई नहीं है।‘
‘कहां-कहां काम ढूंढा? पढ़े-लिखे हो?‘ धनराज के भीतर लड़के को लेकर दिलचस्पी पैदा होनी शुरू हुई। यूं भी वह खाली ही तो था, अच्छा टाइम पास हो रहा था।
'कालबा देवी के बाजारों से लेकर भायंदर के बाजारों तक घूमा हूं। दसवीं पास हूं पर सब बोलते हैं कि किसी जान-पहचान वाले को लाओ।‘ लड़का व्यथित था।
'किसी ने नहीं।‘ लड़का सहजता से बोला, ‘बिहार के लड़के भाग कर या तो मुंबई आते हैं या कलकत्ता जाते हैं।‘
‘तुम्हारे लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकता मैं।‘ धनराज गहरी उदासी में डूबकर बोला और उसने लड़के को जेब से एक बीस रुपये का नोट निकालकर दे दिया।
धनराज रेलवे स्टाॅल पर खड़ा इडली सांभर खा रहा था, जब उसने उसी लड़के को एक दूसरे आदमी से पूछते देखा, ‘आपके पास तीन रुपये हैं?‘
'तो भीख मांगने का यह आधुनिक तरीका है?‘ धनराज ने सोचा और खुद को छला गया महसूस किया। पैसे चुकाकर वह स्टेशन के बाहर निकल रहा था कि एकदम अचानक उसे अपने पिता की याद आई। उसने देखा स्टेशन के बाहर, टिकट विंडो के सामने एक 40-45 साल का थका-थका-सा आदमी बांसुरी पर गा रहा था-
‘चुपके-चुपके रोनेवाले
रखना छुपा के दिल के छाले...
ये पत्थर का देस है पगले
कोई न तेरा होय।‘
धनराज रुक गया। कई लोग रुके हुए थे। वह आदमी भीख नहीं मांग रहा था, सिर्फ गाना गा रहा था। लेकिन उसकी आवाज मे?